दोस्तों आज हम इस आर्टिकल के माध्यम से जैव उर्वरक क्या है तथा जैव उर्वरक प्रकार, जैव उर्वरकों का उपयोग, जैव उर्वरकों के लाभ,जैव उर्वरकों के प्रयोग करने में सावधानियाँ आदि इस पोस्ट में जानेंगे|
जैव उर्वरक (Biofertilizers) -जैव उर्वरक क्या है?
एकीकृत पोषण पद्धति में रासायनिक उर्वरकों एवं जीवांश खाद का प्रयोग ऐसे संतुलित अनुपात में किया जाता है जिससे कृषि उपज में वृद्धि के साथ-साथ भूमि और पर्यावरण पर रासायनिक उर्वरकों के बढ़ते प्रतिकूल प्रभाव को कम किया जा सके|
जैविक खेती में भी जैव उर्वरकों को काफी महत्व है, क्योंकि जैविक खेती में रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग न्यून अथवा वर्जित है| ऐसी परिस्थिति में फसलोत्पादन में जैविक उर्वरक प्रयोग बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि जैविक उर्वरकों के उपयोग से हम प्राकृतिक संसाधनों से उचित जीवाणुओं के माध्यम से पौधों के लिए पोषक तत्व सुलभ करा सकते है|
जैव उर्वरक, वास्तव में प्राकृतिक उर्वरक है जिनमें एक या अधिक जीवाणुओं की मिश्रित संरचनाओं का समावेश होता है, जो वायुमण्डलीय नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करने की क्षमता रखते है एवं अघुलनशील फॉस्फोरस को घुलनशील बनाते है, जो पौधों को सुगमता से उपलब्ध होता है| ये जैव उर्वरक वृद्धिकारक हार्मोन्स की आपूर्ति करने में भी सक्षम होते है|
जैव उर्वरकों के प्रकार (Types of biofertilizers)
नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने वाले जैव उर्वरक
(1) राइजोबियम (Rhizobium)
राइजोबियम क्या है?- यह जीवाणु राइजोबिएसी कुल में आता है जो दलहनी फसलों की जड़ो पर पाई जाने वाली ग्रन्थियों में रहता है| ये जीवाणु वायुमण्डल से नाइट्रोजन का अवशोषण कर उसका स्थिरीकरण करते है जो अंततः पौधों को उपलब्ध होती है| यह बैक्टीरिया 50 से 100 कि. ग्रा.वायुमण्डलीय नाइट्रोजन प्रति हैक्टर तक स्थिरीकृत करने में सक्षम है| ये जैव उर्वरक मृदा में अम्लीयता व क्षारीयता के प्रभाव को कम करता है जिससे मृदा में पादप वृद्धि अच्छी होती है| इनके उपयोग से रबी, खरीफ, जायद की दलहनी फसलों का उत्पादन लम्बे समय तक अच्छा प्राप्त होता रहता है|
विभिन्न दलहनी फसलों के लिए भिन्न-भिन्न राइजोबियम की प्रजातियों के कल्चर काम में लिए आते है जो इस प्रकार है-राइजोबियम मेलीलोटी (मेथी, रिजका, सेंजी) राइजोबियम ट्राईफोलाई (बरसीम), राइजोबियम लेग्यूमिनोसेरम (मटर, समूर,) राइजोबियम फेसियोलि (सेम), राइजोबियम स्पीशीज (मूंगफली, मूंग, उडद, चना, मोठ, अरहर)
(2) एजोटोबेक्टर (Azotobacter) -एजोटोबेक्टर क्या है?
यह जीवाणु एजेटोबेक्टिरिएसी कुल में आता है तथा स्वतंत्र रूप से मृदा में रहते है और वायुमंडल से नाइट्रोजन ग्रहण कर उसका स्थिरीकरण करते है, इस जैव उर्वरक का प्रयोग गेहूँ जो, मक्का, सब्जियों आदि में किया जाता है|
एजोटोबेक्टर के प्रयोग से 10-20 किलोग्राम प्रति हैक्टर नाइट्रोजन की बचत की जा सकती है| ये वृद्धि को बढ़ाने वाले पदार्थ पैदा करते है जिससे बीजों के अंकुरण में वृद्धि होती है तथा पौधों की जड़ो का विकास होता है| एजोटोबेक्टर के प्रयोग से अनाज वाली फसले जैसे-ज्वार, मक्का, सरसों तथा कपास की उपज में वृद्धि के साथ-साथ पौधों की संख्या में भी बढ़ोतरी होती है| ये जैव उर्वरक पॉलिसैकराइड उत्पन्न करते है जिससे मृदा संरचना में सुधार होता है|
(3) एजोस्पिरिलम (Azospirillum)
यह जीवाणु Spirilliaceae कुल में पाया जाता है| यह जीवाणु राई, बाजरा तथा ज्वार के पौधों की जड़ो के साथ रहता हुआ पाया जाता है| ये वृद्धि नियामक पदार्थो को भी उत्सर्जित करता है| यह पर्णहरित की मात्रा को भी बढ़ाता है| इससे पौधों की वृद्धि भी अच्छी होती है और गहरा हरा रंग होता है| यह पौधों की जड़ो में माइकोराइजल इन्फेक्शन को भी बढ़ाता है|
यह जीवाणु भी मृदा में स्वतन्त्र रहकर वातावरणीय नाइट्रोजन का स्थिरीकरण कर पौधों को उपलब्ध कराते है| इस जैव उर्वरकों का उपयोग धान, ज्वार, गन्ना, बाजरा, सब्जियों आदि में किया जाता है| यह वायुमण्डलीय नाइट्रोजन 15 से 30 किलोग्राम प्रति हैक्टर स्थिरीकृत करते है| इनसे I.I.A. तथा GA3 वृद्धि नियामक पदार्थ प्राप्त होते है| इनसे अनाज वाली फसलों में 15 से 30 प्रतिशत उपज बढ़ती है तथा नकदी फसलों की 10 से 20% उपज में बढ़ोतरी होती है|
नत्रजनी जैव उर्वरकों की उपयोग विधि –
नील हरित शैवाल तथा एजोला के अलावा सभी जैव उर्वरकों का निम्न प्रकार प्रयोग किया जाता है|
(1) बीज उपचार –
इस विधि में 1.5 से 2.5 लीटर पानी को गर्म करके उसमें गुड मिलाकर घोल तैयार करते है| घोल के ठण्डा होने पर उसमें 600 ग्राम कल्चर मिलाते है| एक हैक्टर के लिए उपयोग में लाये जाने वाले बीजों को फर्श या पॉलीथीन शीट पर फैला लेते है| बीजों के ऊपर कल्चर घोल को छिडक कर भली-भाँती मिला लेते है जिससे बीजों पर जैव उर्वरक के घोल की परत चढ़ जाये| साधारणतया 200 ग्राम राइजोबियम कल्चर 10 से 15 किलोग्राम दालों के बीज को उपचारित करने के लिए पर्याप्त होता है|
उपचारित बीजों को छाया में सुखाकर बुआई कर लेते है| जैव उर्वरकों से बीज उपचार हेतु विभिन्न फसलों के लिए पानी की मात्रा निम्न प्रकार है- फसल-मूंग, उडद, चावल, (पानी 1 लीटर एवं गुड 250 ग्राम), अरहर (पानी 1.5 लीटर एवं गुड 300 ग्राम), चना, मूंगफली, सोयाबीन (पानी 2.5 लीटर एवं गुड 300 ग्राम) बीज उपचार विधि, जैव उर्वरक उपयोग की सबसे प्रभावित विधि है|
(2) मृदा उपचार –
इस विधि में 2-3 किलोग्राम कल्चर की मात्रा को 50 किलोग्राम छनी हुई गोबर की खाद में मिलाकर बुवाई से पूर्व गीले खेत में छिड़क दिया जाता है|
(3) पौध उपचार –
इस विधि उन फसलों में काम लाई जाती है जिनकी पौध तैयार कर रोपण किया जाता है| एक बाल्टी में 10 लीटर पानी लेकर उसमें 4-5 पैकेट के कल्चर के डालकर घोल तैयार करते है| इस घोल में पौधों की जड़ो को 10-20 मिनट तक डूबोकर रोपाई की जाती है| घोल की मात्रा आवश्यकतानुसार घटायी व बढायी जा सकती है|
(4) कंद उपचार –
1 किलोग्राम कल्चर का 40-50 लीटर पानी में घोल तैयार करते है| घोल में आलू, लहसुन, गन्ना, आदि के टुकडों को 10 मिनट तक डुबोकर बुवाई करते है|
(4) नील हरित शैवाल (Blue greem algae)
नील हरित शैवाल को साइनोबैक्टीरिया भी कहते है| यह शैवाल 15-53 किलोग्राम नाइट्रोजन का प्रति हैक्टर धान के खेत में यौगिकीकरण करता है| यह 15-20% धान की पैदावार को बढ़ाता है| यह पादप वृद्धि नियामक पदार्थ जैसे-इन्डोल एसिटिक एसिड, ऑक्जिन तथा जिब्रेलियन्स पैदा करता है| इसका उपयोग धान के खेतों में किया जाता है| यह प्रकाश संश्लेषण द्वारा अपनी वृद्धि एवं विकास कर धान की फसल को नाइट्रोजन उपलब्ध कराता है| इसकी कुछ मुख्य प्रजातियाँ है- एनाबिना, नोस्टॉक, साइटोनिया, आसीलेटोरिया आदि|
नील हरित शैवाल प्रयोग विधि
इसका उपयोग धान की रोपाई के 7 दिन बाद करते है तथा जिस खेत में इसका उपचार करते है उसमें पानी स्थिर एवं 8-10 से.मी. हमेशा भरा रहना चाहिए| खेत में 8-12 किलोग्राम प्रति हैक्टर की दर से नील हरित शैवाल का छिड़काव करते है| कल्चर डालने के बाद 4-5 दिनों तक पानी स्थिर रहना चाहिए|
(5) एजोला (Azolla)
एजोला का खाद के रूप में प्रयोग वियतनाम तथा चीन में कई सदियों पूर्व से होता aa रहा है| भारत तथा अन्य देशों में इसका प्रयोग अभी हाल ही में शुरू हुआ है| एजोला एक जलीय फर्न है जो एजोलेसी कुल में आता है| भारत में एजोला पिन्नेटा पाया जाता है|
यह अपने भीतर नील हरित शैवाल (Anabaena Azollae) को समेटे रखने वाला जलीय पौधा है, जो कि प्रायः झीलों, तालाबों, नहरों तथा कही-कही धान के खेत में पानी की सतह पर तैरता हुआ मिलता है| एजोला एनाबीना एजोली के साथ सहजीवन क्रिया के द्वारा धान के खेतों में नत्रजन स्थिरीकरण करता है| तमिलनाडु में एजोला माइक्रोफाइला (Azolla microphylla) जैविक खाद के रूप में प्रयोग किया जाता है| एजोला धान की फसल में लगभग 40-50 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हैक्टर प्रति फसल प्रदान करता है| एजोला को धान की फसल में हरी खाद के रूप में देने से धान की उपज 3-38% बढ़ जाती है|
एजोला प्रतिदिन 1.0 से 1.5 किलोग्राम प्रति हैक्टर तक नाइट्रोजन जमा करने की क्षमता रखता है| 20-25 दिन के भीतर इससे प्रति हैक्टर औसतन 20-40 किलोग्राम नाइट्रोजन प्राप्त हो जाता है| एजोला सहजीवी नाइट्रोजन स्थिरीकरण द्वारा 150 से 200 किलोग्राम प्रति हैक्टर नाइट्रोजन स्थिरीकृत करता है|
एजोला प्रयोग विधि
एजोला का उपयोग धान के खेत में रोपाई के पहले हरी खाद के रूप में या रोपाई के बाद धान के साथ इसका संवर्धन किया जाता है| प्रथम विधि में इसका प्रयोग केवल उन्हीं क्षेत्रों में सम्भव है जहाँ रोपाई के पहले पर्याप्त पानी उपलब्ध हो|
खेत को तैयार कर छोटी-छोटी क्यारियों में बाँट कर 5-10 से.मी. भर देते है| क्यारियों में 1.0 से 2.0 टन प्रति हैक्टर की दर से एजोला डाल देते है| 10 किलोग्राम सुपर फॉस्फेट प्रति हैक्टर की दर से तीन बराबर भागों में खेत में डाले जाते है| 15-20 दिन बाद एजोला की मोटी तह बन जाने पर खेत से पानी निकाल कर हल चलाकर एजोला को मिट्टी में मिला दे, मिट्टी में धान की रोपाई कर दे|
धान के साथ एजोला प्रयोग के लिए 0.5 से 1.0 टन एजोला प्रति हैक्टर की दर से रोपाई के एक सप्ताह बाद खेत में डाले| 20-25 दिन बाद एजोला की मोटी तह बन जाती है इसको मिट्टी में मिला दे| मिट्टी में नही मिलाने पर एजोला अपने आप सड़ जाता है और फसल को पर्याप्त लाभ देता है|
फॉस्फोरस विलेय जैव उर्वरक (Phosphate solubilising bio fertilizers)
इस जैव उर्वरक में बैक्टीरिया, फफूंद, व एक्टीनोमाइसीटीज की कोशिकाएँ जीवित अवस्था में होती है जो मृदा में अघुलनशील फॉस्फोरस को घुलनशील अवस्था में बदलने का कार्य करती है|
ये पौधों की वृद्धि हेतु हार्मोन्स, विटामिन आदि भी प्रदान करते है| फॉस्फोरस को घुलनशील अवस्था में बदलने वाले सूक्ष्म जीव जिनमें बैक्टीरिया की प्रजाति बैसिलस तथा स्यूडोमोनास, कवक की प्रजाति एस्परजीलस तथा पेनिसिलियम मुख्य है|
बैक्टीरिया एवं फन्जाई की निम्न प्रजातियाँ बेसिलस सर्कुलॉन्स, बेसिलस पोलीमिक्सा, सुडोमोनास स्ट्राइटा आदि काफी सक्रियता से मृदा में पाए जाने वाले अप्राप्त फॉस्फोरस को घुलनशील करके प्राप्य रूप में परिवर्तित करते है जिससे पौधों आसानी से फॉस्फोरस को ग्रहण कर लेता है|
प्रयोग विधि
फॉस्फोरस घोलक बैक्टीरिया (पी.एस.बी.)/पी.एस.एम. (Phosphorus solubilizing micro-organisms) कल्चर का उपयोग भी एजोटोबेक्टर या राइजोबियम की तरह ही बीज उपचार, भूमि उपचार व पौध उपचार के रूप के किया जाता है, जिसका वर्णन पूर्व में किया जा चुका है|
माइकोराइजा (mycorrhizae)
यह एक विशेष प्रकार का कवक होता है जो बहुशाखीय लम्बे तंतुओं से बना होता है| पौधों व फसलों की जड़ो में इसके तंतु प्रवेश कर जाते है| तंतुओं का वह भाग जो जड़ो के बाहर रहता है मिट्टी से लगातार फॉस्फोरस अवशोषित करता रहता है|
यह फॉस्फोरस, तंतुओं के अंदर गति कर पौधों की जड़ क्षेत्र के अंदर पहुँच जाता है| कवक व पौधों की जड़ो के बीच सह-जीविता होती है जिससे कवक मृदा से जल एवं खनिज लवणों को अवशोषित कर पौधों को प्रदान करता है तथा पौधे कवक को कार्बनिक भोज्य पदार्थ प्रदान करते है|
वेसिकूलर आरबसक्यूलर माइकोराइजा (Vesicular arbsuclar mycorrhiza)
इस माइकोराइजा में कवक, पौधों की जड़ो में संक्रमण करके पौधों की जड़ो की कोशिकाओं के अंदर पहुँच जाते है तथा जहाँ पर कवक एक विशेष प्रकार की रचना बेसिल्लस और अरबसल्लस का निर्माण करता है,बेसिल्लस एक गुब्बारे के आकार की रचना होती है जो कि अरबसल्लस के द्वारा जुड़ी रहती है तथा इनके कवक सूत्र मृदा में स्पोरोकारपस में स्पोर्स भरे रहते है जिनके फटने से स्पोर्स मृदा में फैल जाते है तथा अनुकूल परिस्थितियाँ मिलने पर यह दूसरे पौधे में संक्रमण करते है| इस माइकोराइजा की पाँच प्रमुख प्रजातियाँ होती है|
- ग्लोमस
- जिगस्पोरउ
- एकुलोस्पोरा
- एण्डोगन
- स्किलिरोसिस्टम
जिनमे से ग्लोमस प्रजाति प्रमुख है| भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली में वाम फन्जाई का उत्पाद ‘Nutrink’ नामक जैव उर्वरक तैयार किया गया है जिसके एक पैकिट का मूल्य 20 रु. प्रति किलोग्राम है| एक एकड़ भूमि को उपचारित करने के लिए 3-5 किलोग्राम मात्रा चाहिए|
माइकोराइजा के लाभ
- यह जड़ तंत्र के बाहरी भाग का विस्तार करता है जिससे कि कवक सूत्र अधिक गहराई में जाकर पोषक तत्वों (फॉस्फोरस, नत्रजन, पोटेशियम, जिंक तथा गंधक) को मृदा में अवशोषित करके उनका संचयन कवक सूत्रों के मेन्टल/अरबसटलस में करते है|
- यह कुछ वृद्धि कारकों ऑक्सीन, साइटोकाइनिन एवं जिबरालिन्स तथा विटामिन का स्राव करते है जिससे पौधों की वृद्धि होती है|
- दलहनी फसलों में माइकोराइजा को राइजोबियम के साथ निवेशन करने से फॉस्फोरस के साथ-साथ नत्रजन की मात्रा में भी वृद्धि होती है|
- माइकोराइजा वृक्ष दूसरे वृक्षों में माइकाराइजल सहजीविता स्थापित कर लेते है तथा दूसरे वृक्षों में पोषक तत्वों की कमी होने पर यह उस वृक्ष में पोषक तत्वों का स्थानान्तरण करते है|
- माइकोराइजा के कवक सूत्र मृदा में गहराई तक फैल जाते है तथा सूखने की स्थिति में पौधों के लिए पानी की पूर्ति करते है|
जैव उर्वरकों के लाभ
- जैव उर्वरक पौधों को नाइट्रोजन व फॉस्फोरस की आपूर्ति करते है|
- ये पौषक तत्वों के सस्ते स्रोत है|
- कुछ जैव उर्वरक जैसे एजोटोबेक्टर, एजोला व नील हरित शैवाल हार्मोन्स, विटामिन आदि का स्राव भी करते है, जिससे पौधों की वृद्धि पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है|
- इनके उपयोग से फसलों की उपज में 10-20% तक वृद्धि होती है|
- कुछ जैव उर्वरक एंटीबायोटिक उत्पन्न करते है जिससे मृदा जनित रोगों का प्रभाव कम होता है|
- इनके उपयोग से मृदा की भौतिक अवस्था में सुधार होता है|
- नील हरित शैवाल व एजोला नाइट्रोजन के अतिरिक्त सूक्ष्म पोषक तत्व जैसे लोहा, ताँबा, मैगनीज, जस्ता आदि उपलब्ध कराते है|
जैव उर्वरकों के प्रयोग करने में सावधानियाँ
- जीवाणु कल्चर किसी मान्यता प्राप्त संस्थान से ही खरीदें तथा पैकेट पर लिखी अंतिम तिथि व फसल का नाम अवश्य देख ले|
- कल्चर का भण्डारण ठंडे स्थान पर ही करे|
- पैकेट पर लिखे दिशा-निर्देशों का पालन करे|
- घोल बनाने के लिए पानी को निर्जमिकृत किया जाना आवश्यक होता है| ऐसा न करने से पानी में स्थित जीवाणु कल्चर से जीवाणुओं को हानि पहुँचा सकते है|
- कल्चर को रासयनिक खाद तथा कृषि रसायनों के साथ न मिलाये|
- यदि बीज को किसी पारायुक्त रसायन से उपचारित करना हो तो पहले रसायन का प्रयोग कर ले उसके पश्चात् कल्चर की दोगुनी मात्रा का प्रयोग करना चाहिए|
- यदि मिट्टी अम्लीय हो तो कल्चर से उपचारित बीजों पर पहले चूने की और यदि क्षारीय भूमि है तो जिप्सम की परत चढ़ा कर बुआई करे|
- पैकेट को उपचारित करते समय ही खोलना चाहिए तथा उपचारित बीजों को तुरन्त बो दे, धूप में ना रखे|
- उपचारित बीज तथा मृदा रासायनिक उर्वरक सीधे सम्पर्क में न आने पाये| अतः रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग बुवाई के समय न किया जाये|
- बुवाई के उपरान्त बचे हुए बीजों को खाने के उपयोग में नही लाना चाहिए|
विभिन्न जैव उर्वरकों की नत्रजन स्थिर/फॉस्फोरस घुलनशील बनाने की क्षमता
क्रमशः | नत्रजन जैव उर्वरक | नाइट्रोजन स्थिर क्षमता (कि.ग्राम/है/वर्ष) | फसले | उत्पादन वृद्धि % में |
1. | राइजोबियम कल्चर | 250-300 | दलहनी फसले | 0-60 |
2. | एजोटोबैक्टर | 10-60 | धान्य फसले | 5-30 |
3. | एजोस्पीरिलम | 0-40 | ज्वार, धान आदि | 0-20 |
4. | नील हरित शैवाल | 25-30 | धान | 0-15 |
5. | एजोला | 25-30 | धान | 0-15 |
क्रमशः | फॉस्फोरस जैव उर्वरक | नाइट्रोजन स्थिर क्षमता (कि.ग्राम/है/वर्ष) | फसले | उत्पादन वृद्धि % में |
1. | पी.एस.बी. कल्चर | 20-25 | सभी फसले | 20-30 |
2. | माइकोराइजा | 15-20 | मक्का, धान, गेहूँ, अलसी, प्याज | 20-30 |
विभिन्न दलहनी फसलों की नत्रजन स्थिर करने की क्षमता
क्रमशः | फसले | नाइट्रोजन स्थिर क्षमता (कि.ग्रा./है) |
1. | लुसर्न (Alfalfa) | 100-300 |
2. | तिपतिया (Clover) | 100-150 |
3. | मोठ (Cluster bean) | 37-196 |
4. | मटर (Peas) | 46 |
5. | मसूर (Lentil) | 35-100 |
6. | सौंफ (Fenugreek) | 44 |
7. | सोयाबीन (Soyabean) | 49-130 |
8. | लोबिया (Cowpea) | 80-125 |
9. | अरहर (Pigeonpea) | 68-200 |
10. | उडद (Blackgram) | 50-55 |
11. | चना (Chickpea) | 85-110 |
12. | सेम (Commanbean) | 3-57 |
13. | मूंगफली (Groundnut) | 50-206 |
14. | मूंग (Greengram) | 50-66 |
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