दोस्तों आज हम इस आर्टिकल के माध्यम से हरी खाद तथा हरी खाद वाली फसल, हरी खाद के उपयोग, हरी खाद के लाभ आदि इस पोस्ट में पढ़ेंगे|
हरी खाद (Green manuring)
मृदा उर्वरता बनाए रखने के लिए हरी फसलों को खेत में जोतना एक सामान्य एवं प्राचीन व्यवहार है| प्राचीन ग्रन्थों में इसका उल्लेख मिलता है| रोमन लोग सेम, लुपित और मूंग व मोठ का प्रयोग इस काम के लिए करते थे| जर्मनी के वैज्ञानिक शुल्टिशे-फ्युफिट्स ने सन् 1880 ई. में लुआर मिट्टी में ल्यूपिन के उगाने से मिट्टी के सुधार के साथ-साथ उपजाऊ शक्ति में वृद्धि देखी है| आज विश्व के अनेक भागों में इसका प्रयोग भूमि की भौतिक दशा सुधारने तथा उसकी उर्वरता बढ़ाने के लिए किया जाता है|
हरी खाद किसे कहते एवं परिभाषा
अविच्छेदित हरे पादप अवशेषों या पौधों को मृदा की भौतिक दशा सुधारने तथा मृदा उर्वरता उन्नत करने हेतु मृदा में जोतना अथवा दबाना, हरी खाद देना कहलाता है|
हरी खाद देने की विधियाँ (methods of green manuring)
मृदा प्रकार हरी खाद की फसल की प्रकृति तथा जलवायु के अनुसार हरी खाद देने की विभिन्न विधियाँ प्रयोग में लायी जाती है| इनमें से कुछ विधियाँ निम्नलिखित है|
(1) हरी खाद देने की सीटू विधि (green manuring in situ)
इस विधि के अंतर्गत हरी खाद की फसल को खेत में फूल आने की पूर्व अवस्था तक अथवा बाद तक उगाया जाता है तथा खड़ी फसल को उसी खेत में मिट्टी पलटने वाले हल से दबा दिया जाता है| इस प्रकार की विधि के लिए ढेंचा, ज्वार, सनई तथा लोबिया आदि फसले उपयुक्त पायी जाती है|
(2) हरी पत्तियों से हरी खाद (green leaf manuring)
इस विधि के अंतर्गत हरी खाद की फसलों को एक खेत में उगाकर दूसरे जगह मिट्टी में दबाया जाता है| अथवा पेड़ो की शाखाएँ व् हरी पत्तियाँ एकत्रित करके खेत में बाई जाती है| यह विधि प्रायः ऐसे क्षेत्रों में प्रयोग की जाती है जहाँ जल का अभाव होता है| वनों से प्राप्त पत्तियों को भी प्रयोग में लाया जा सकता है|
हरी खाद की मुख्य फसले(principle crops for green manuring)
हरी खाद के लिए प्रयोग होने वाली फसलों को दो मुख्य भागों में विभाजित किया जाता है|
(1) दलहनी फसले (Leguminous crops)
सनई, ढेंचा, मूंग, उडद, ग्वार, लोबिया, नील, बरसीम,सैंजी, सोयाबीन, रिजका आदि|
(2) अदलहनी फसले (non-leguminous crops)
राई, जौ, जई, तोरिया, सरसों, मक्का, ज्वार, सूरजमुखी आदि|
हरी खाद की फसल के आवश्यक गुण (desirable characteristics of green manuring crop)
- फसल खूब बढ़ने वाली तथा खूब पत्तियों वाली तथा शाखादार हो, ताकि प्रति हैक्टर अधिक से अधिक मात्रा में मृदा में कार्बनिक पदार्थ मिलाया जा सके| फसल के वनस्पति भाग मुलायम हो ताकि वे आसानी से सड़ सके|
- फसल फलीदार होनी चाहिए, क्योंकि इन पौधों की जड़ो में ग्रन्थियाँ होती है, जिनमें रहने वाले बैक्टीरिया वायुमण्डल की स्वतंत्र नाइट्रोजन को मृदा में अधिक मात्रा में स्थिरीकरण करते है|
- इनका बीज सस्ता हो और आसानी से उपलब्ध हो सके|
- फसलों की जड़े नीचे गहरी जाए जिससे मिट्टी भुरभुरी बन सके और पोषक तत्वों को अधोमृदा से निकाल कर ऊपर ले आए|
- हरी खाद ऐसी हो जो कि कम उपजाऊ मृदा पर भी सफलता पूर्वक उगायी जा सके तथा जल की आवश्यकता भी कम हो|
- फसल को कीट न लगे और उसमें रोगों के आक्रमण न होते हो तथा विषम जलवायु सहन कर सके|
- फसल चक्र में उसका उचित स्थान होना चाहिए| फसल की तैयारी में अधिक समय न लगता हो, उसके अधिक प्रबंध तथा देख-रेख करने की आवश्यकता न पड़ती हो|
- मिट्टी में उपयोगी अवशेष छोड़े |
विभिन्न खलियों की पोषक तत्वों की प्रतिशत मात्रा
क्रमशः | न खाने योग्य खलियाँ | नाइट्रोजन | फास्फोरस अम्ल | पोटाश |
1. | अरण्डी की खली | 4.37 | 1.85 | 1.39 |
2. | बिनौले (बिना छिले) की खली | 3.99 | 1.89 | 1.62 |
3. | करंज की खली | 3.97 | 0.94 | 1.27 |
4. | महुआ की खली | 2.51 | 0.80 | 1.85 |
5. | नीम की खली | 5.22 | 1.08 | 1.48 |
6. | कुसुम की खली (बिना छिली) | 4.92 | 1.44 | 1.23 |
7. | अंडो की खली | 3.63 | 1.52 | 2.05 |
खली की खाद (oilcake manure)
खली की खाद किसे कहते है? -तिलहनों से तेल निकालने के बाद जो अवशिष्ट पदार्थ बचा रह जाता है, उसे खली कहते है| जब इसे खेत में खाद के रूप में प्रयोग किया जाता है तो इसे खली की खाद कहते है| खली की खाद सान्द्र कार्बनिक खादों के वर्ग में आती है|
खलियों में पोषक तत्व
खलियों में गोबर की खाद एवं कम्पोस्ट की तुलना में नाइट्रोजन अधिक मात्रा में पायी जाती है| इसके साथ ही फॉस्फोरस और पोटाश भी पाया जाता है|
खलियों के प्रकार (Types of oilcakes)
खलियाँ दो प्रकार की होती है – (1) खाद्य खलियाँ (2) अखाद्य खलियाँ
(1) खाद्य खलियाँ (edible cakes)
ये वे खलियाँ है जिन्हेँ पशुओं को खिलाने के काम में लाया जाता है| जैसे- बिनौला, मूंगफली, सरसों, तारामीरा, तिल, नारियल आदि|
(2) अखाद्य खलियाँ (non-edible cakes)
ये वे खलियाँ है जिन्हें पशु नहीं खाते इनको खेतों में खाद्य के रूप में काम में लिया जाता है| जैसे- अरण्डी, महुआ, नीम, करंज आदि|
खलियों की प्रयोग विधि
खलियों को खेत में डालने के बाद उनके अपघटन के लिए मृदा में पर्याप्त मात्रा में नमी होना अतिआवश्यक है| अतः इन्हें सिंचित अर्थात पर्याप्त वर्षा वाले क्षेत्रों में प्रयोग किया जाता है| खलियों का बुवाई पूर्व कूट-पीसकर चूर्ण बना लेना चाहिए|
उसके बाद उपर्युक्त समय पर एक बार में एकसार बिखेर कर जुताई कर खेत में मिला देनी चाहिए| खलियों में जितनी अधिक मात्रा में तेल होगा उतना ही उन मृदा में अपघटन देर से होगा| खलियों का उपयोग बुवाई पूर्व और पश्चात् दोनों ही तरह से किया जा सकता है|
(1) बुवाई पूर्व खलियों का प्रयोग
- महुआ की खल के अतिरिक्त सभी खलियों का चूर्ण बुवाई के 10-15 दिन पूर्व खेत में प्रयोग करना चाहिए|
- महुआ की खल का प्रयोग बुवाई के लगभग दो माह पूर्व करना चाहिए| इसमें सेपोनिक नामक रसायन पाया जाता है जिसकी उपस्थिति के कारण धान की फसल के लिए सर्वोत्तम खली है|
- खलियों को खेत में बिखेरकर हल्की जुताई कर मिट्टी मिला देनी चाहिए|
(2) बुवाई पश्चात् प्रयोग विधि
- अंकुरण पश्चात् पौधों के जमने के बाद पौधों के पास बारीक पिसी हुई खली के चूर्ण का प्रयोग करना चाहिए|
- कन्दमूल वाली फसलों में मिट्टी चढ़ाते समय खलों का प्रयोग करना चाहिए|
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