ऐस्केरिस क्या होता है?– दोस्तों आज के इस आर्टिकल के माध्यम से हम पशु परजीवियों में ऐस्केरिस कीट तथा ऐस्केरिस क्या होता है साथ में ऐस्केरिस का आर्थिक महत्व पढ़ेंगे|
ऐस्केरिस का वैज्ञानिक नाम क्या होता है?
वैज्ञानिक नाम – ऐस्केरिस लुम्ब्रिकाइड्रस (Ascaris lumbricoids)
ऐस्केरिस क्या होता है(What is ascaris)
- संघ – निमैटोडा (Nematoda)
- गण – ऐस्कैराइडिया का गोल कृमि है|
- यह मुख्य रूप से मनुष्य की आंत्र का परजीवी है परन्तु इसकी अन्य प्रजातियाँ सुअर, घोड़े, भैस व गिलहरी में भी पाई जाती है|
- इसका शरीर चमकीला अर्धपारदर्शक क्यूटिकल के आवरण से ढका रहता है|
- इसका रंग हल्का पीला या हल्का गुलाबी होता है|
- इसके अग्र छोर पर त्रिकोण आकार का मुखद्वार तीन चौड़े होठों के द्वारा घिरा रहता है|
- शरीर पर लम्बाई में फैली चार स्पष्ट धारियाँ दिखाई देती है|
- यह एकलिंगी जन्तु होता है|
- यह नर एवं मादा अलग -अलग होते है|
- मादा की लम्बाई 20 से 40 से.मी. एवं व्यास 4 से 6 मि.मी. होता है|
- नर अपेक्षाकृत छोटा लम्बाई में 15 से 30 से.मी. एवं व्यास में 2 से 4 मि.मी.होता है|
- नर का पश्च सिरा मुड़ा हुआ होता है एवं मादा का पश्च सिरा सीधा होता है|
- नर के अवस्कर द्वार पर एक जोड़ी पिनियल सीटी बाहर निकली रहती है परन्तु मादा में अवस्कर द्वार की जगह गुदा होती है जिसमे पिनियल सीटी अनुपस्थित होती है|
- जनन छिद्र केवल मादा में शरीर की अधर रेखा पर लम्बाई के लगभग 1/3 पीछे स्थित होता है|
- उत्सर्जी छिद्र अगले सिरे से 2 मिमी. दूर मध्य अधर सतह पर होता है|
- पाचन तंत्र में मुख प्रकोष्ठ, ग्रसनी, आंत्र व मलाशय होता है|
- नर में मलाशय अवस्कर में खुलता है, परन्तु मादा में मलाशय सीधा गुदा द्वार से बाहर खुलता है|
- इसमें श्वसन अवायवीय अथवा अनॉक्सी प्रकार का श्वसन होता है|
- जीवन चक्र के अंतर्गत नर व मादा की मैथुन प्रक्रिया छोटी आंत्र में होती है| तत्पश्चात मादा निषेचित एवं कठोर आवरण युक्त अण्डो को परपोषी के शरीर से मल के साथ बाहर के वातावरण में निकालती है|
- यह अपने जीवन काल में 20 से 27 लाख तक अण्डे देती है| जब अण्डे मिट्टी के सम्पर्क में आते है तो अनुकूल तापक्रम, नमी व ऑक्सीजन की उपलब्धता प्राप्त होने पर अण्डो में ही प्रथम लार्वा का निर्मोचन हो जाता है|
- लार्वा की द्वितीय अवस्था जिसे भ्रूण युक्त अण्डा कहते है| यह इसकी संक्रामक अवस्था होती है|
- जिन स्थानों पर मानवीय स्वभाव खुले में शौच क्रिया करने का होता है, उन स्थानों पर इया अवस्था में यह मेजबान अथवा जन्तु क शरीर में संक्रमित जलभोज्य पदार्थो के द्वारा आहारनाल में प्रवेश करता है|
- आहारनाल में पाचक रसों के द्वारा अण्डे के आवरण का पाचन हो जाता है, जिससे यह लार्वा मुक्त होकर आंत्र भित्ति को भेद कर रुधिर कोशिकाओं से यकृत निवाहिका से यकृत में, यकृत के पश्चात् ह्दय में, ह्दय से फुफ्फुस धमनी से होता हुआ फुफ्फुस में पहुँच जाता है| इस प्रकार से यह परपोषी के शरीर में उपयुक्त भागों को पूरा करते समय अपनी लार्वा अवस्था का तृतीय निर्मोचन पूर्ण कर लेता है| यह इसका प्राथमिक प्रवास कहलाता है|
- परपोषी की खाँसी व थूक निगलने की प्रक्रिया के दौरान यह आहारनाल में प्रवेश करता है| आहारनाल की आंत्र में पहुँचने पर यह अपना अंतिम व चतुर्थ निर्मोचन करके लैंगिक परिपक्वता को पूर्ण कर लेता है|
- इस प्रकार से फुफ्फुस से आंत्र का भ्रमण इसका द्वितीय प्रवास कहलाता है| इसके सम्पूर्ण प्रवास में 8 से 10 सप्ताह का समय लग जाता है| इसका सम्पूर्ण जीवन काल लगभग 10 से 12 महीनों से पूर्ण होता है|
ऐस्केरिस का आर्थिक महत्व
यह विश्व के अधिकत्तर क्षेत्रों एवं अत्यधिक मात्रा में पाये जाने के कारण निमेटोड प्राणियों के अध्ययन हेतु इसका चुनाव किया गया है| प्रयोगशाला में इसका प्रयोग निषेचन, प्रारम्भिक विदलन एवं समसूत्री विभाजन के प्रयोग हेतु किया जाता है|
ऐस्केरिस द्वारा होने वाले रोग को सामान्यतः ऐस्केरिएसिस कहते है इसके संक्रमणकारी अण्डो से युक्त दूषित भोजन अथवा जल को ग्रहण करने पर मनुष्य में इसका संक्रमण हो जाता है वयस्कों की अपेक्षा बच्चों में ऐस्केरिएसिस का प्रभाव अधिक होता है आंत्र की उपकला को भेदकर यह मांसपेशियों वृक्क, रीढ़ रज्जु को गम्भीर हानि पहुँचा सकते है| फुफ्फुसों के रुधिर स्राव व उत्तकों में सूजन उत्पन्न कर देते है|
उग्र संक्रमण में ज्वर, रक्तहीनता, श्वेताणुता, इयोसिनोफिलिया रोग हो जाते है| रोगग्रस्त बच्चों का उदर फूल जाता है, शारीरिक विकास में गिरावट, पाचन में गडबडी, उदर दर्द, आंत्रशोध जैसे रोग उत्पन्न हो जाते है| आंत्र में इसकी अधिक संख्या में होने पर औषधि दी जाने पर यह अत्तेजित होकर आपस में उलझकर आंत्र गुहा का मार्ग अवरुद्ध कर देते है| यह दशा शल्प क्रिया के बिना घातक हो सकती है|
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