जी दोस्तों इस लेख में हम उत्सर्जन से सम्बंधित कुछ जानकारी जानते है|
उत्सर्जन किसे कहते है?
नाइट्रोजनी वज्र्य पदार्थो को शरीर से बाहर निष्कासित करने की जैव-प्रक्रिया क उत्सर्जन कहते है| उत्सर्जन में सहायक अंग उत्सर्जी अंग कहलाता है|
विभिन्न जन्तु भिन्न-भिन्न प्रकार के नाइट्रोजनी पदार्थ उत्सर्जित करते है, जिनके आधार पर उत्सर्जन निम्न प्रकार से होता है|
(1) अमोनिया उत्सर्जन :-
इसमें नाइट्रोजनी पदार्थ का उत्सर्जन मुख्यतया अमोनिया के रूप में होता है| उदाहरण- जलीय कशेरुकी, अस्थि मछलियाँ एवं उभयचर|
(2) यूरिया उत्सर्जन :-
इसमें नाइट्रोजन का उत्सर्जन मुख्यतया यूरिया के रूप में होता है| अमोनिया, यकृत में CO2 के साथ मिलकर यूरिया बनाती है| उदाहरण- स्तनधारी, मनुष्य एवं मेंढक|
(3) यूरिक अम्ल उत्सर्जन :-
इनमे नाइट्रोजन का उत्सर्जन यूरिया अम्ल के रूप में होता है| उदाहरण- पक्षी, सरीसृप एवं बहुत से कीट|
(4) अमीनो अम्ल उत्सर्जन :-
प्रोटीन के विघटन द्वारा अमीनो अम्ल बनते है| अमीनो अम्लों के उत्सर्जन को अमीनोटीलिक उत्सर्जन कहते है| उदाहरण – इकाइनोडर्मेटा एवं मोलस्का|
मानव उत्सर्जी तंत्र
मानव का उत्सर्जी तंत्र वृक्क, मूत्रवाहिनी नलिका, मूत्राशय तथा मूत्र मार्ग से मिलकर बना होता है| नेफ्रॉन वृक्क की संरचनात्मक तथा क्रियात्मक इकाई होती है|
नेफ्रॉन मूत्र का निर्माण करती है तथा अंततः इसे वृक्क के पेल्विस में डालती है, जहाँ से मूत्रवाहिनी आरम्भ होती है| मूत्र, मूत्रवाहिनी में रीनल पेल्विस के द्वारा प्रवेश करता है| मूत्र का अस्थायी संग्रह मूत्राशय में होता है| पक्षियों में मूत्राशय अनुपस्थित होता है|
नेफ्रॉन में चार प्रमुख सरंचनाएं; बोमन सम्पुट, समीपस्थ कुण्डलितनलिका, हेनले लूप एवं दूरस्थ कुण्डलित नलिका होती है|
उत्सर्जन की क्रियाविधि :-
दोस्तों उत्सर्जन की क्रिया विधि को दो भागों में बाँटा गया है| 1. यूरिया निर्माण 2. मूत्र निर्माण
यूरिया निर्माण :-
यूरिया का निर्माण ऑर्निथीन चक्र या यूरिया चक्र के द्वारा यकृत में होता है| इस चक्र की खोज क्रैब्स और हेन्सलीट ने 1932 में की थी| प्रोटीन अपचय के समय प्रोटीनों का विघटन अमीनो के रूप में होता है|
अमीनोहरण द्वारा अमीनों अम्ल, कीटों अम्ल तथा अमोनिया में टूट जाता है| अमोनिया को यकृत कोशिकाएँ, निम्नलिखित समीकरण के अनुसार, CO2 से मिलकर यूरिया में बदलती है|
इनके चक्र में तीन अमीनों अम्लों; जैसे- ऑर्निथीन, सिटुलीन एवं आर्जिनीन का चक्रीय उपयोग होता है| अमोनिया का एक अणु एक चक्र में कार्बेमॉइल फॉस्फेट में माध्यम से प्रवेश करता है| अमोनिया का दूसरा अणु इस चक्र में एस्पार्टिक अम्ल के माध्यम से प्रवेश करता है|
मूत्र निर्माण :-
उत्सर्जन में मूत्र निर्माण की प्रक्रिया वृक्को में तीन प्रकार से होता है|
(1) परानिस्यन्दन :-
यह प्रक्रिया नेफ्रॉन की मेल्पीघी नलिकाओं में होती है| बोमेन सम्पुट की भित्ति में विशेष प्रकार की कोशिकाएँ पोड़ोसाइट्स होती है, जिनमे से होकर छनने की प्रक्रिया होती है|
ग्लोमेरुलस में रुधिर प्लाज्मा का निस्यन्दन होता है| ग्लोमेरुलस में रुधिर अभिवाही धमनिका द्वारा बाहर जाता है| ग्लोमेरुलर निस्यन्द को छानने के लिए बल केशिका जालक में उपस्थित रुधिर के दबाव से तथा प्लाज्मा प्रोटीन के ओस्मोटिक दबाव व सम्पुटीय निस्यन्द दबाव के योग, के अन्तर से मिलता है| यह अन्तर लगभग 10mm Hg का होता है, जिसे निस्यन्दन दाब कहते है|
वृक्को में स्थित सभी नेफ्रॉन द्वारा एक मिनट में छने निस्यन्द को ग्लोमेरुलर निस्यन्दन दर कहते है| यह दर वयस्क पुरुषों में 125 मिली प्रति मिनट तथा वयस्क स्त्रियों में 110 मिली प्रति मिनट होती है|
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ग्लोमेरुलर निस्यन्दन का नियन्त्रण
वृक्क निस्यन्दन के नियन्त्रण के लिए शरीर में दो स्व-नियन्त्रणकारी क्रियाविधि होती है|
(1) मायोजेनिक क्रियाविधि :-
रुधिर दाब में वृद्धि होने पर धमनी की भित्ति में संकुचन होता है| इस संकुचन के कारण ग्लोमेरुलस में रुधिर प्रवाह में कमी हो जाती है|
(2) वृक्कासन्न उपकरण :-
वृक्कासन्न कोशिकाएँ रेनिन हॉर्मोन का स्रावण करती है| रेनिन रुधिर दाब को नियन्त्रित करता है|
(2) चयनात्मक पुनः अवशोषण :-
नलिकाकार पुनरावशोषण में यूरिया और जल निष्क्रिय विसरण द्वारा पुनरावशोषित कर लिये जाते है, जबकि अन्य पदार्थ; जैसे-अमीनो अम्ल, शर्करा एवं लवण, आदि केशिकीय रुधिर में सान्द्रता विसरण प्रवणता के विरुद्ध सक्रियता से ग्रहण किए जाते है|
समीपस्थ कुण्डलित नलिका में निस्यन्द रुधिर प्लाज्मा के समपरासारी रहता है, लगभग 65-80% केशिका गुच्छ निस्यन्द समीपस्थ कुण्डलित नलिका में पुनरावशोषित होता है| परिनलिका केशिका आधार पर निस्यन्द दाब से थोड़ा अधिक रुधिर दाब और परिनलिका द्रव में बड़ी सान्द्रता के कारण उच्च परासरण दाब से ग्लूकोज, अमीनो अम्ल K+, Ca2+, PO2-4 आयन निष्क्रियता से निस्यन्द से रुधिर में आ जाते है| हेनले के लूप की अवरोही शाखा में अन्तराकाशी द्रव की बढ़ी समसान्द्रता के कारण जल का पुनरावशोषण होता है यहाँ पर निस्यन्द प्लाज्मा से अतिपरासारी बन जाता है|
(3) सक्रिय स्त्रावण या नलिका स्त्रावण
एपिथीलियमी कोशिकाएँ नलिका की मुख्यतया समीपस्थ कुण्डलित नलिका में परिनलिकाकार केशिकाओं के रुधिर से कुछ पदार्थ निचोड़कर निस्यन्द में स्रावित करते है, यह प्रक्रम नलिकाकार स्रावण कहलाता है|
मूत्र में जितना भी K स्रावित होता है, वह नलिका स्रवण द्वारा ही होता है| DCT तथा CI की भित्ति की कोशिकाएँ मूत्र में K, यूरिक अम्ल व कुछ अमोनिया स्रावित करती है|
वृक्क द्वारा परासरण नियमन :-
वृक्क रुधिर का परासरण दाब तथा सान्द्रता बनाए रखते है| यदि अधिक पानी लिया जाता है, तब अप्लपरासरी मूत्र का उत्सर्जन होता है जब शरीर में पानी की कमी होती है, तब अतिपरासरी मूत्र का उत्सर्जन होता है| वृक्क के कार्य का नियन्त्रण कुछ हॉर्मोनो द्वारा होता है, जो निम्न है|
(1) एन्टीडाइयूरेटेक हॉर्मोन :- यह हॉर्मोन पियूष ग्रन्थि के पश्य पिण्ड से स्रावित होता है और DCT तथा CT द्वारा जल के पुनः अवशोषण को नियन्त्रित करता है|
(2) एल्डोस्टीरॉन :- यह हॉर्मोन एड्रीनल कॉर्टेक्स द्वारा स्रावित होता है और DCT में जल व Na के पुनः अवशोषण को बढ़ा देता है|
(3) एट्रियल नैट्रीयूरेटिक कारक :- यह हॉर्मोन ह्दय के अलिन्दो की भित्ति में स्थित कोशिकाओं द्वारा स्रावित होता है, वह हॉर्मोन NaCL तथा जल का पुनः अवशोषण कम करता है|
मूत्र का संघटन (Composition of Urine)
मूत्र में 95% जल, 0.03% यूरिक अम्ल, o.25% अमोनिया एवं लगभग 2% लवण होता है, इसका पीला रंग यूरोक्रोम वर्णक के कारण मूत्र अम्लीय (PH 6.0) होता है|
उत्सर्जन तंत्र के विकार (Disorders of Excretory system)
- मूत्राशय शोथ (cystitis) मूत्राशय में सूजन आ जाना मूत्राशय शोथ या सिस्टाइटिस कहलाता है| कभी-कभी प्रोस्टेट ग्रन्थि के बढ़ जाने से भी मूत्राशय शोथ हो जाता है| इस रोग में जल्दी-जल्दी दर्द व जलन के साथ मूत्र आने लगता है|
- वृक्क पथरी (Renal stones) वृक्क के ऊतकों में कैल्शियम ऑक्सेलेट तथा फौस्फेट्स के जमाव से पथरी का निर्माण होता है| वृक्क की पथरी को ऑपरेशन द्वारा या लिथोट्रापी की सहायता से हटाया जाता है|
- जलीय शोथ (oedema) ऊतकों में अधिक मात्रा में तरल एकत्र हो जाने से सूजन aa जाती है, जिसे जलीय शोथ कहते है| प्लाज्मा प्रोटीन की मात्रा में कमी होने पर भी सूजन आ जाती है|
- असंयम – मूत्र त्याग का नियन्त्रण न करने की अवस्था को असंयम कहते है| ऐसा बाह्य अवरोधनी के तन्त्रिका मार्ग का पूरी तरह से निर्माण न हो पाने के कारण होता है|
- वृक्क नलिका अम्लता इस अवस्था में व्यक्ति हाइड्रोजन आयनों का स्रावण उचित मात्रा में नही कर जाता है, जिससे मूत्र में सोडियम बाइकार्बोनेट अधिक मात्रा में उत्सर्जित होने लगता है|
- अपोहन या डायलाइसिस अर्धपारगम्य झिल्ली से विसरण के द्वारा रुधिर से उत्सर्जी पदार्थो को पृथक करना अपोहन कहलाता है| रुधिर में एकत्रित व्यर्थ उत्सर्जी पदार्थो को कृत्रिम वृक्क की सहायता से पृथक करने को रक्त अपोहन कहते है|
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