लिवर फ्लूक क्या है?- दोस्तों आज इस आर्टिकल के माध्यम से हम पशु परजीवियों में से लिवर फ्लूक कीट तथा लिवर फ्लूक क्या है? का अध्ययन करेंगे जो ज्यादातर भेड़ो में पाया जाता है|
लिवर फ्लूक का वैज्ञानिक नाम क्या है?
वैज्ञानिक नाम – फेसिओला हिपैटिका (Faciola hepatica)
लिवर फ्लूक क्या है?(What is liver fluke)
- लिवर फ्लूक प्लैटीहेल्मिन्थीस (Platyhelminthes) संघ का कीट है|
- यह यह ट्रिमेटोडा (Trematoda) वर्ग का है|
- यह कीट डाइजीनिया गण का प्राणी है|
- लिवर फ्लूक भेड़, बकरी,सुअर, कुत्ता ओर मनुष्य की पित्त वाहिनियों और यकृत का फ्लूक है|
- इस लिवर फ्लूक की लम्बाई 1.8 से.मी. से 3.0 से.मी. एवं चौड़ाई 0.4 से 1,5 से.मी. तक होती है|
- इसका शरीर आगे एवं पीछे दोनों तरफ संकरा हो जाता है|
- इसका रंग भूरा, मुख शंकु रूपी एवं छोटे चूषक होते है, एक दो अग्र चूषक एवं दूसरे को अधरीय चूषक कहते है|
- शरीर पर मुखके अलावा दो छिद्र जनन रन्ध्र एवं उत्सर्जी छिद्र होता है|
- यह प्राणी उभयलिंगी होता है, परन्तु स्वनिषेचन कम एवं पित्त्वाहिनी में मैथुन के पश्चात परनिषेचन होता है|
- श्वसन अवायवीय होता है|
- यह कीट अपने मुख चूषक द्वारा रुधिर, लसिका,पित्त और उतकों को चूस लेता है/ जिसका पाचन आंत्र में बाह्यकोशिकीय होता है|
- लिवर फ्लूक में उत्सर्जन ज्वाला कोशिकाओं द्वारा होता है|
- लिवर फ्लूक का जीवन चक्र जटिल होता है जो दो परपोषियों में पूर्ण होता है|
- इसमें प्राथमिक परपोषी कशेरुकी जन्तु स्वयं होता है जिसमें व्यस्क कृमि रहता है|
- द्वितीय परपोषी अलवणीय जल की घोंघे की लिम्निया एवं प्लैनोर्बिस की प्रजातियाँ होती है|
- वयस्क फ्लूक द्वारा मल मार्ग से जब अण्डो का त्याग कर दिया जाता है तो उचित ताप, नमी एवं अम्लीयता को प्राप्त होते ही अण्डो द्वारा मिराशिडिया नामक पहली लार्वा अवस्था से बाहर आकर जल में तैरने लगता है|
- घोंघे के सम्पर्क में आते ही यह इसके कोमल भाग में प्रवेश करने के उपरान्त यह अपनी विभिन्न अवस्थाओं से गुजर कर सर्केरिया नामक लार्वा अवस्था को प्राप्त कर घोंघे के शरीर से बाहर निकलकर पुनः जल में तैरते हुए पौधे के सम्पर्क में आने तक यह मेटासर्केरिया नामक लार्वा अवस्था को प्राप्त कर पौधें की पत्तियों पर चिपक जाता है|
- जन्तुओं द्वारा पौधें रूपी भोजन के रूप में ग्रहण किये जाने पर यह इनके शरीर में प्रवेश कर जाता है| शरीर में प्रवेश करने के पश्चात् आगे चलकर यह उनके यकृत को क्षतिग्रस्त कर देता है|
लिवर फ्लूक का आर्थिक महत्व
यह रोग ज्यादातर भेड़ो में पाया जाता है| जब कशेरुकी परपोषी भेड़, बकरी ऐसी वनस्पति को खाती है जिस पर लीवर फ्लूक की कवच युक्त लार्वा अवस्था अर्थात मेटासर्केरिया चिपकी हुई होती है| उसको खाये जाने से यह उनके शरीर में प्रवेश कर जाता है आगे चलकर यह यकृत विगलन होने लगता है| जिससे यकृत से सम्बंधित सामान्य उपापचय कार्य प्रभावित होने लगते है|
पित्ताशय में कैल्सिभवन के कारण पथरिया बन जाती है| जबड़ो पर जल से भरे हुए बड़े-बड़े छाले बनने लगते है| पशु रक्ताल्पता का शिकार हो जाता है|
भूख में कमी आ जाने से ऊन गिरने लगती है दूध मी मात्रा में कमी होने लगती है| इस प्रकार से रोगी पशु का जीवित रहना असम्भव हो जाता है, रोगी तभी जीवित रहता है जब फ्लूक उसके आमाशय से होता हुआ मल के साथ निकल जाता है, तब रोगी धीरे धीरे ठीक होने लगता है|
शुरुआत में औषधियों के उपचार से भी रोगी पशु को सफलता पूर्व ठीक किया जा सकता है| अत्यधिक संक्रमण हो जाने से यकृत व पित्त्वाहिनियों में औषधियों को पहुँचाना आसान कार्य नही होने से रोगी की मृत्यु हो जाती है| जिससे पशुपालकों को पशुओं में इस रोग के संक्रमण के बढ़ने से पशु उत्पादों से होने वाली आय से वंचित हो जाने से उन्हें बहुत अधिक आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है|
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